विधवाओं की गरिमा का प्रश्न हम सबकी ज़िम्मेदारी –अब समाज को जवाब देना होगा: लेखिका: अनुराधा मीना

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विधवाओं की गरिमा का प्रश्न हम सबकी ज़िम्मेदारी –अब समाज को जवाब देना होगा: लेखिका: अनुराधा मीना

क्या हम सचमुच उन विधवा महिलाओं की स्थिति को समझते हैं, जिनके साथ समाज भेदभाव करता है? क्या एक महिला का पति खोना उसके जीवन को असहनीय बना देता है, या यह हमारे समाज की घातक मानसिकता है, जो उसे तिरस्कार और उपेक्षा की नजरों से देखता है? क्या विधवाओं के साथ किए जाने वाले अत्याचारों को हम केवल व्यक्तिगत समस्याओं के रूप में देखेंगे, या इसे समाज की बड़ी जिम्मेदारी मानेंगे?

सरकार ने विधवाओं के लिए नीतियाँ बनाई हैं, योजनाएं चलाई हैं, लेकिन क्या समाज के लोग इन योजनाओं को सही रूप से लागू करने के लिए जिम्मेदार हैं? जब तक हम समाज में व्याप्त भेदभाव और अन्याय को नहीं समझेंगे, तब तक यह कुप्रथा कैसे समाप्त हो सकती है? कब तक हम उन दुर्भावनापूर्ण विचारधारा वाले लोगों को देखेंगे, जो विधवाओं को घर से बाहर करने की कोशिश करते हैं, और फिर भी चुप रहेंगे? क्या हम यह नहीं समझते कि यह सिर्फ एक विधवा का मामला नहीं, बल्कि यह समाज की असलियत है?

क्या हम यह स्वीकार करेंगे कि एक महिला का विधवा होना उसके परिवार की ही जिम्मेदारी है, या हम इसे सिर्फ उसके माता-पिता तक सीमित रखेंगे? क्या एक महिला के ससुराल वाले उसकी देखभाल और सम्मान करने में भूमिका निभाने से इंकार कर सकते हैं? क्या हम भूल जाते हैं कि जब एक महिला अपने पति को खो देती है, तो उसे भावनात्मक सहारे की उतनी ही ज़रूरत होती है जितनी किसी भी व्यक्ति को किसी प्रियजन को खोने पर होती है?

क्या हम यह देखना नहीं चाहते कि जब समाज एक विधवा महिला को तिरस्कृत करता है, तो वह समाज की सभ्यता और इंसानियत को धुंधला कर देता है? क्या हम यह स्वीकार करेंगे कि यह केवल एक पारिवारिक समस्या है, या इसे समाज के हर एक सदस्य की जिम्मेदारी मानेंगे? क्या हम अपने परिवारों और रिश्तेदारों से यह सवाल करेंगे कि क्या उनके लिए किसी विधवा महिला का सम्मान और गरिमा कोई मायने रखता है?

यह हमारे सामूहिक जिम्मेदारी का सवाल है। क्या हम अपने घरों, समाज और संस्थाओं में बदलाव लाने के लिए तैयार हैं? क्या हम यह सुनिश्चित करेंगे कि किसी भी विधवा महिला को तिरस्कार नहीं, बल्कि सम्मान और अधिकार मिले? क्या हम यह समझेंगे कि विधवा महिला के अधिकार, गरिमा और सुरक्षा की रक्षा करना हमारी समाज की असली पहचान है?

समाज की मानसिकता कब बदलेगी? क्या हम सब आज एकजुट होकर यह तय करेंगे कि विधवाओं के लिए समाज में हर आयोजन में उनका सम्मानपूर्ण स्थान हो? क्या हम यह मानेंगे कि एक सशक्त समाज वही है, जो विधवाओं को सिर्फ सहानुभूति नहीं, बल्कि उनके अधिकार और सम्मान के साथ जीने का हक दे?

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